साहित्य समाज का दर्पण है । इसके माध्यम से सहजता से तत्कालीन समाज के विविध आयामों के दर्शन होते हैं । साहित्य की कोई भी विधा अपने समकालीन परिवेश, राजनीति, धर्मव्यवस्था और पर्यावरण के सम्बन्ध में सम्पूर्ण न भी सही, तो एक झलक तो दिखलाती ही है, जिसके आधार पर उस युग का एक खाका खींचा जा सकता है । प्राचीन भारतीय मनीषियों ने सर्वजन हिताय विपुल साहित्य का सृजन किया है । उसको सन्दर्भ मानकर ही सहस्रों वर्ष पुरातन-सनातन भारतीय संस्कृति का जीवन्त चित्रण सम्भव है । पुरुषार्थ चतुष्टय के आधार पर समाजोपयोगी घटनाओं को एक माला में गूँथकर गंगोत्री से अनन्त सागर के लिये निकला यह अविरल प्रवाह सभ्यता के प्रारम्भ से ही सतत् बहता चला आ रहा है । आज के तथाकथित विकसित देश जब सभ्यता का क ख ग भी नहीं जानते थे, उस समय भारतीय ऋत्विजों ने सप्तसैन्धव के विस्तृत भूक्षेत्र में वेदों की पावन ऋचाओं का सस्वर गान कर पूरी सृष्टि को सुमंगल बनाने का पुनीत कार्य किया था। उन उद्भट मनीषियों के श्रेष्ठ साहित्य आज की सभी समस्याओं का सम्यक् समाधन प्रस्तुत करने में सक्षम हैं ।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम लगभग एक हजार वर्षों तक विभिन्न विदेशी शासनों के अधीन रहे । इस पराधीनता-काल में भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति और सामाजिक संस्थाओं को निर्ममता से कुचला गया । भारतीयों में हीन भावनायें भरी गयीं तथा स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये भारतीय इतिहास, महापुरुषों और परम्पराओं को पर्याप्त विकृत कर अपने पक्ष में करने का घृणित कुकृत्य किया गया । इसके लिये कई विदेशी तथाकथित विद्वानों को वेतन देकर काम पर लगाया गया । बाद के कालखण्ड में जन्म से भारतीय, पर चिन्तन से विलायती इतिहासकारों एवं वामपन्थी बुद्धिजीवियों ने भी यही कार्य किया । ऊलजलूल तथा मनगढ़न्त सन्दर्भों को तैयार कर भारतीय इतिहास का एक ऐसा ढाँचा खड़ा किया गया, जो देखने में तो भारतीय लगे, पर स्वार्थ परराष्ट्रिकों का ही पूर्ण करे ।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व ही कई श्रेष्ठ भारतीय विद्वानों ने इस विकृत मानसिकता को समझ लिया था और इसे निर्मूल सिद्ध करने के लिये, कम मात्रा में ही सही, कार्य भी किया था । स्वातन्त्रयोत्तर काल में इस क्षेत्र में व्यापक कार्य हुआ है । आज वे प्राचीन धारणायें व मान्यतायें खण्डित हो गयी हैं, जिन्हें विदेशी इतिहासकारों व साहित्यकारों ने जबरदस्ती स्थापित किया था । आर्यों का भारत में बाहर से आना, सरस्वती नदी का एक किंवदन्ती होना, भारत का कभी भी एक राष्ट्र के रूप में न होना आदि ऐसी बहुत सी स्थापनायें थीं, जो आज के शोध-कार्यों से तार-तार हो गयी हैं ।
सिकन्दर द्वारा भारत-विजय भी एक ऐसी ही मिथ्या मान्यता है। वर्तमान उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि सिकन्दर पंचनद-नरेश पर्वतेश्वर (पोरस) से पराजित हो चुका था । परंतु, पर्वतेश्वर की भारत-सम्राट् बनने की महत्त्वाकांक्षा को जगाकर सिकन्दर कुछ भारतीयों की मदद से ही एक सन्धि करने में सफल हो गया तथा स्वयं ही विश्वविजेता बनने का दिवास्वप्न देखने लगा । इस गुप्तसन्धि को तत्कालीन सभी भारतीय शासक समझने लगे थे । सभी शासकों को एकजुट करने में चन्द्रगुप्त की बहुत बड़ी भूमिका थी । इसी का परिणाम था कि सिकन्दर की सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था । फलतः, सिकन्दर को पाँव सिर पर रख वापस यूनान लौटने को विवश होना पड़ा था, हालाँकि वह यूनान वापस जा नहीं सका और मकरान की मरुभूमि में ही दफन हो गया ।
उसके पिताजी धननन्द की सेना में एक योग्य सेनापति थे । वह एक श्रेष्ठ तलवारबाज तथा शूलबाज था। वह एक श्रेष्ठ चिन्तक व कुशल शासक भी था । समय की माँग को समझते हुए अपने पराक्रम से सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोनेवाला चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास का एक उद्दीप्त तारा है, जिसका प्रकाश युगों-युगों तक भारतीय वंशजों को अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने को प्रेरित करता रहेगा । इस तारे को सतत् चमकीला बनाने में महात्मा चाणक्य के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । चाणक्य के उचित मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त की योग्यता और भी प्रभावी हो गयी तथा मार्ग की जटिलताओं को दूर कर भारतवर्ष में एक अविस्मरणीय राष्ट्रीयता का जन-जागरण सम्भव हुआ ।
सचमुच, भारतवर्ष वीरों की जन्मभूमि है । यहाँ ऐसे अगणित महापुरुष हुए हैं, जिनका एक-एक प्रसंग मानव जीवन में आमूल परिवर्तन लाने के लिये पर्याप्त है । इस भूमि की श्रेष्ठता इसी से सिद्ध् हो जाती है कि स्वयं श्रीभगवान् ने अपनी लीलाओं के लिये इसी भूमि को चूना तथा बार-बार विविध रूपों में अवतरित हुए । परंतु, वर्तमान तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था तथा भारतीय शिक्षा-प्रणाली की विसन्गतियों एवं साहित्यकारों-इतिहासकारों के विभिन्न वादों में बँध जाने के कारण ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की प्रेरक जीवनियाँ आज की युवा पीढ़ी के समक्ष सम्यक् रूप में नहीं पहुँच पा रही हैं, जिसके कारण उनमें भारतीय इतिहास एवं ऐतिहासिक आदर्शजनों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है । वे अपने अतीत के प्रति हीनताबोध से ग्रसित हो रहे हैं तथा आँखें मूँदकर पश्चिमी भौतिकवादी चिन्तन-धारा की गोद में छलाँगें लगाने लगे हैं । यह भारत के सर्वांगपूर्ण विकास के मार्ग में एक सशक्त अवरोध बन सकता है ।
मैं इतिहासकार नहीं हूँ और न ही मेरा उद्देश्य इतिहास लिखना ही है । मेरा प्रयास सिर्फ इतना-सा है कि मैं साहित्य के माध्यम से नवीन ऐतिहासिक शोध-कार्यों को समावेशित कर महत्त्वपूर्ण भारतीय प्रेरक व्यक्तित्वों को युवा पीढ़ी तक पहुचाऊं। अपने इस कार्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान कर आम पाठकों तक पहुँचाने के लिये मुझे कई श्रेष्ठ विद्वानों एवं इतिहासकारों की रचनाओं की सहायता लेनी पड़ी है। प्रस्तुत नाटक की आधारभूमि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा रचित चन्द्रगुप्त की संक्षिप्त जीवनी है । उपलब्ध् अधुनातन शोध-पत्रों एवं पुस्तकों के आधार पर मैंने इसे आवश्यकतानुसार परिवर्धित कर इसमें नाटकीयता एवं रंगमंचीयता का समावेश किया है ।
साहित्य के विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है, "मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता, परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न कर सके, जो उसे परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।"
आचार्यश्री की कसौटी पर मैं कितना खरा उतरा हूँ, इसका निर्णय तो आप ही करेंगे, परन्तु यदि प्रस्तुत नाटक भारतीय युवापीढ़ी में भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रति एक सकारात्मक चिन्तनधारा प्रवाहित करने तथा सामान्य जन में अपने अतीत के प्रति गर्व की अभिव्यक्ति में शतांश भी सहयोगी हो जाय, तो मैं स्वयं को अपने उद्देश्य में सफल मानूँगा ।
- दिवाकर राय
अच्छी पहल...!
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