Friday, 15 June 2012

नाटक: 'राष्ट्र-पुजारी' : (अंक-1, दृश्य-1)


पात्र-परिचय 
 1. चाणक्य (विष्णुगुप्तद्)  : तक्षशिला विश्वविद्यालय का आचार्य, मौर्य-साम्राज्य का निर्माता ।
 2. चन्द्रगुप्त  : मौर्य-सम्राट् ।
 3. धननन्द   :  मगध-नरेश, महापद्मनन्द का नौवाँ वंशधर।
 4. राक्षस  : मगध का अमात्य ।
 5. कात्यायन (वररुचि) : मगध का अमात्य ।
 6. भाग्यनारायण : मगध का सेनापति ।
 7. पर्वतेश्वर (पोरस)  : पंचनद-नरेश ।
 8. सिकन्दर  : यवन-आक्रान्ता ।
 9. सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति ।
10. नियारकस : सिकन्दर का सेनापति ।
11. मेगास्थनीज : सिल्यूकस का राजदूत ।
12. विनयगुप्त, विश्वगुप्त, अरिमर्दन : चन्द्रगुप्त के मित्र-सैनिक ।
13. स्थूलभद्र, शीलभद्र, विनयमित्र  : चाणक्य के शिष्य ।
14. दाण्ड्यायन : महान् तपस्वी ।
15. अन्य  : राजपुरोहित, गुप्तचर, प्रतिहारी, सैनिक, नागरिकगण, याचक, नर्तकियाँ, पर्वतेश्वर का सेनापति, विषकन्या आदि ।

दृश्य - 1  
(धननन्द का विलासी राजदरबार । कात्यायन, राक्षस, भाग्यनारायण आदि सभासद बैठे हैं । महाराज धननन्द के आगमन की सूचना होती है।)

प्रतिहारी : (नेपथ्य से) सावधन ! सावधन !! सावधन !!! महाप्रतापी... अतुलितबलशाली.. नन्दवंशकुलशिरोमणि...दुष्ट-दैत्य-शत्रु-संहारक.....बौद्धधर्मप्रतिपालक...... मगधनरेश... महाराजाधिराज...... धननन्द.....पधार रहे हैं... । 

(सभी सभासद खड़े होते हैं । नेपथ्य से धीरे-धीरे धननन्द का मंच पर आगमन होता है । राजसी वस्त्राभूषणों से सज्जित धननन्द आगे बढ़ते हुए दोनों तरफ खड़े सभासदों को भी घूरते जाते हैं । सभासद सिर झुकाते जाते हैं । धननन्द सिंहासन पर बैठते हैं, फिर सबको बैठने का संकेत करते हैं । सभी अपने-अपने आसन ग्रहण करते हैं । प्रतिहारी का प्रवेश।)

प्रतिहारी :  महाराज की जय हो ! पूज्य राजपुरोहित जी पधार चुके हैं । यदि आपकी आज्ञा हो, तो उन्हें दरबार में उपस्थित करूँ ?
धननन्द :  राजपुरोहित जी को दरबार में ससम्मान लाया जाय ।  (प्रतिहारी का प्रस्थान । शीघ्र ही राजपुरोहित का प्रवेश ।)
धननन्द :  (आसन से उठकर हाथ जोड़ते हुए)
प्रणाम, ब्राह्मणदेव ! कृपया आसन ग्रहण कीजिये । (राजपुरोहित आसन ग्रहण करते हुए हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं ।)
राजपुरोहित : आपका कल्याण हो राजन ! सम्पूर्ण मगध में शान्ति, समृद्धि और खुशहाली आये ! आपका यश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैले ! आप शतायु हों !
कात्यायन :  (अपने आसन से उठकर हाथ जोड़ते हुए) यात्रा में कहीं आपको कष्ट तो नहीं हुआ, विप्रवर ? पंचनद-नरेश ने क्या उत्तर दिया है ?
राजपुरोहित : ब्राह्मण कभी महत्त्वाकांक्षी नहीं होता और जिसे महत्त्वाकांक्षा नहीं, उसे भला क्या कष्ट हो सकता है ?  पंचनद-नरेश का उत्तर लेकर मैं उपस्थित हूँ । (पत्र बढ़ाते हुए) यह लीजिये पत्र, अमात्य । (कात्यायन आगे बढ़कर पत्र लेता है ।)
धननन्द : (उत्सुकता से)
क्या सन्देश है, अमात्य ? पंचनद-नरेश तो मेरे प्रस्ताव से अवश्य गद्गद हो गये होंगे ? (कात्यायन मन में ही पत्र पढ़ता है । फिर पत्र को समेटते हुए सकुचाते हुए कहता है ।)

कात्यायन : महाराज ! पंचनद-नरेश का सन्देश सकारात्मक नहीं है। भाषा भी अमर्यादित है । अच्छा होता, आप स्वयं ही पढ़ लेते । (कात्यायन पत्र लेकर महाराज की ओर बढ़ता है।)
धननन्द : (अन्यमनस्क भाव से)  मुझे इससे कोई अन्तर नहीं आता कि सन्देश सकारात्मक है या नकारात्मक । (सचेत होकर)  पर हाँ; यदि पर्वतेश्वर ने मेरे प्रस्ताव को ठुकराया होगा, तो उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी । तुम निर्भय होकर पत्र का वाचन करो ।

कात्यायन : (रुक-रुककर एक-एक शब्द टटोलते हुए पत्र का वाचन करता है ।)  मगधनरेश.... धननन्द....को....इस....प्रस्ताव....के.....लिये....धन्यवाद....!पर....मैं....अपने....पुत्र....का....विवाह.... आपकी.... पुत्री....से....नहीं....कर....सकता....।     मेरी....पुत्रवधू..उत्तम....कुल....की....कन्या....ही....होगी...।  आप.... पद्मनन्द.... का....एक.... (अचानक चुप हो जाता है। फिर चेष्टा करता है, पर मुख से आवाज नहीं
निकलती । हाथ से पत्र भी छूट जाता है । झुककर पत्र को उठाता है और फिर पढ़ने की चेष्टा  करता है, पर पत्र पढ़ नहीं पाता।)
कात्यायन :  (क्षुब्ध होकर)  मैं अब आगे नहीं पढ़ सकता,  महाराज !

धननन्द : (क्रोधित होकर)  जला डालो इस पत्र को । और राख की पोटली बनाकर पंचनद को ऐसा ही बना डालने का पर्वतेश्वर को सन्देश भेज दो । पर्वतेश्वर ने मेरा अपमान कर अक्षम्य अपराध किया है । उसके पत्र से अहंकार की बू आ रही है । अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर उसने मगध को चुनौती दी है । इसके लिये मैं पर्वतेश्वर को अवश्य दण्ड दूँगा । उसे उसकी दुष्टता का फल चखना ही होगा ।

(चारों तरफ सन्नाटा छा जाता है । सभी सभासद अनिष्ट की आशंका से एक दूसरे का चेहरा देखने लगते हैं । कुछ पल के पश्चात् महाराज फिर बोलते हैं ।)
धननन्द : सेनापति !

भाग्यनारायण :  आज्ञा, महाराज !

धननन्द : चतुरंगिणी सेना तैयार करो । शीघ्रातिशीघ्र पंचनद पर आक्रमण करो । मुझे किसी भी कीमत पर पर्वतेश्वर चाहिये और वह भी जीवित । उसकी आँखों के सामने उसे ऐसा दण्ड दूँगा कि फिर कोई शासक मगध से पंगा लेने के विचार मात्र से ही सिहर जाय । उसे क्रूरतम दण्ड दिये बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी । मेरी आज्ञा का पालन हो । पंचनद में भयंकर हाहाकार मचा दो । चहुँओर केवल विध्वंस ही विध्वंस हो ।

भाग्यनारायण :  ऐसा ही होगा, महाराज ! पंचनद को मिट्टी में मिला दिया जायेगा तथा घमण्डी पर्वतेश्वर शीघ्र ही महाराज के चरणों में गिड़गिड़ा रहा होगा ।

धननन्द : (आनन्दित होकर)  और तब भी मैं उसे क्षमा नहीं करूँगा। उसे दण्ड देकर मैं इस पृथ्वी पर यह सन्देश देना चाहता हूँ कि सबको अपनी सीमा में ही रहना चाहिये ।

(कात्यायन कुछ सोचते हुए धीरे-धीरे खड़ा होकर महाराज की ओर हाथ जोड़कर निवेदन करता है ।)
कात्यायन :
 क्षमा महाराज ! परंतु, क्या सिंह को मेमने का शिकार शोभा देगा ? (कुछ रुककर) महाराज, पर्वतेश्वर ने दुष्टता दिखायी है, उसे इसका दण्ड अवश्य मिलेगा । इसकी जिम्मेवारी मैं स्वयं लेता हूँ । इस छोटे-से कार्य के लिये मगध की चतुरंगिणी सेना की कोई आवश्यकता नहीं है । और हाँ; यदि आक्रमण की आवश्यकता पड़ी ही, तो अनुकूल समय देखते ही आक्रमण भी किया जायेगा । अभी तो मौसम भी प्रतिकूल आनेवाला है ।

धननन्द : अमात्य, यदि प्रतिद्वन्द्वी पहलवान अखाड़े में ताल ठोककर ललकार रहा हो, तो इसके लिये अनुकूल समय और मौसम की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती । उससे दो-दो हाथ होना ही पुरुषार्थ है ।

कात्यायन : पर महाराज ! बिना विचारे प्रतिद्वन्द्वी पहलवान के दोनों जंघों के बीच अपना गरदन फँसा देना भी आत्मघाती होता है ।

धननन्द : (डपटते हुए)  कात्यायन, तुम्हें हमेशा मेरी बातों में अडंगा डालने की आदत है, और तुम्हें यह भी पता है कि मुझे यह अत्यन्त अप्रिय है ।

कात्यायन : (सिर झुकाकर विनम्रता से) धृष्टता के लिये क्षमा महाराज! मैं मगध का अमात्य हूँ । मेरा प्रत्येक कदम मगध के हित के लिये ही होता है । मगध के लिये मैं तन-मन-धन सबकुछ समर्पण करने के लिये हरपल तैयार हूँ । मैं किसी भी विषय पर आपको उचित परामर्श ही दूँगा । इसमें आपकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता का प्रश्न ही कहाँ है ? मैं अपने कर्तव्य के लिये हानि-लाभ, जीवन-मरण के प्रश्नों पर कदापि विचार नहीं करता ।

धननन्द : (दाँत पीसते हुए)  हुँह !
(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारी : महाराज की जय हो ! एक याचक आपसे मिलना चाहता है ।
धननन्द : (बेमन से)  बुलाओ उसे !
 (प्रतिहारी का प्रस्थान । एक फटेहाल याचक का प्रवेश । याचक गिड़गिड़ाता है ।)
याचक : (हाथ जोड़कर)   मुझे न्याय दीजिये महाराज ! मुझे न्याय दीजिये !

धननन्द : (झल्लाकर)    कैसा न्याय ? किसके लिये न्याय ?

याचक : (रोते हुए)  महाराज ! मुझ अभागे पर विचार कीजिये । मुझे न्याय दीजिये । आपके सैनिकों ने मेरी आत्मजा का अपहरण कर लिया है । विरोध करने पर मेरे एकमात्र पुत्र को यमलोक पहुँचा दिया गया है । मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति बौद्ध-विहार को अर्पित कर दी गयी है । मैं भूखे-प्यासे यत्र-तत्र भटकने को बाध्य हूँ । अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है । आप मेरी सहायता कीजिये, महाराज, मुझे न्याय दीजिये ।

धननन्द : (भौंहे सिकोड़ते हुए)  याचक, तुम्हारी बातों से षड्यन्त्र की बू आ रही है । कहीं तू हमारे शत्रुओं के बहकावे में तो नहीं आ गया ?

याचक : (गिड़गिड़ाते हुए)  नहीं महाराज ! ऐसा नहीं हो सकता । मेरे पूर्वजों ने भी मगध की सेवा की है । मैं भी एक मागध हूँ, मगध का नागरिक ।

धननन्द : (डपटते हुए) बकवास बन्द करो । तुम्हारे आरोप आधारहीन हैं । मगध में चारों तरफ शान्ति और खुशहाली है । तुम हमें भ्रमित कर रहे हो । जानते हो, इस अपराध में तुझे मृत्युदण्ड दिया जा सकता है !  (सेनापति भाग्यनारायण से)  क्यों सेनापति, क्या मगध में ऐसी ही अव्यवस्था है ?
भाग्यनारायण:   नहीं महाराज ! मगध में चारों ओर शान्ति है । प्रजाजन प्रसन्न हैं । चहुँओर समृद्धि है । कहीं से भी किसी प्रकार की गड़बड़ी का कोई समाचार नहीं है । इस याचक का आरोप मिथ्या है । एकदम निर्मूल है ।

(धननन्द याचक को घूरता है । याचक भयभीत होकर सभासदों की ओर आशा से देखता है । कात्यायन की आँखों में आँखे डालकर न्याय की अपेक्षा करता है । उसकी करुण अवस्था कात्यायन को आन्दोलित करती है । कात्यायन खड़ा होता है ।)

कात्यायन : परंतु महाराज ! याचक के आरोप जाँचने योग्य तो अवश्य ही हैं । इसकी जाँच होनी चाहिये । प्रजाजनों को इसका अहसास तो होना ही चाहिये कि हमारी याचना पर समुचित विचार किया जाता है ।
धननन्द : (बीच में ही टोकते हुए) अमात्य, तुम सिर्फ एक नौकर हो मगध का । तुम्हें अपनी सीमा का ध्यान रखना चाहिये ।
कात्यायन : (शिष्टता से सिर झुकाते हुए) क्षमा महाराज ! मुझे अपने पद और पद की गरिमा तथा सीमा सबका भान है । मैं जान-बूझकर आपको सत्य से परे नहीं जाने दे सकता । मैं सर्वदा निरपेक्ष भाव से अपना परामर्श दूँगा । यह आपके वश की बात है कि आप उसे मानें या अमान्य कर दें ।
धननन्द : (क्रोध में काँपते हुए)  यह उद्दण्डता की हद है, कात्यायन! तुम अपनी सीमा का अतिक्रमण कर चुके हो । मैं ऐसी अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं कर सकता । अब तुम मगध के अमात्य के योग्य बिल्कुल नहीं रहे । मैं तुमको अमात्य पद से अभी, इसी समय पदच्युत करता हूँ ।       

(दरबार में घोर सन्नाटा छा जाता है । सभी सभासद हतप्रभ हैं ।)
धननन्द : (सेनापति से)  सेनापति, इस उद्दण्ड अमात्य को वन्दी बनाकर वन्दीगृह में डाल दो । मैं आज ही से, अभी से नये अमात्य के रूप में राक्षस की घोषणा करता हूँ । अब राक्षस ही मगध के अमात्य हैं । हाँ; सभी सुन लो, राक्षस ही ।
  (सेनापति कुछ सैनिकों से संकेत कर आगे बढ़ता है । सैनिक कात्यायन को वन्दी बना लेते हैं । राजपुरोहित इसका विरोध करता है ।)
राजपुरोहित : (बीच दरबार में खड़ा होकर)  यह अन्याय है, राजन, घोर अन्याय है । इस तरह आप मगध के हितों के साथ अन्याय नहीं कर सकते । कात्यायन एक योग्य अमात्य है। व्यक्तिगत अरुचि के कारण आप मगध को एक कुशल अमात्य से वंचित नहीं कर सकते । कात्यायन वन्दीगृह का अधिकारी नहीं है । आप अत्याचार की पराकाष्ठा पर हैं, महाराज ! इससे पूर्व शकटार को भी आप मगध से निष्कासित कर चुके हैं । उसके सभी बच्चों को यमराज के हवाले कर चुके हैं । आज मगध में चारों ओर प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है । सम्पूर्ण साम्राज्य में अधर्म और अनाचार का बोलबाला हो गया है । निरंकुशता के बल पर बहुत दिनों तक शासन नहीं चलाया जा सकता, मगध-नरेश ! अब भी समय है, सँभल जाइये, वरना....

धननन्द : (क्रोध में खड़ा होकर)  वरना...., वरना क्या तुम निगल जाओगे मुझे ? दुष्ट ब्राह्मण, भिक्षा से पेट पालते हो और बातें आसमान की करते हो । अपने उपदेशों को अपने पास ही रख, गुरुकुल में चेलों के काम आयेंगे । मुझे इन कोरे बकवासों की कोई आवश्यकता नहीं है ।

राजपुरोहित : (विनम्रता से)  मैं उपदेश नहीं दे रहा, सन्मार्ग दिखा रहा हूँ, राजन, वैसा ही सन्मार्ग, जैसा कि अंगद ने रावण को तथा श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को दिखाने का प्रयास किया था ।

धननन्द : (आग बबूला होकर) अरे नंग-धडंग ब्राह्मण, अपने को कृष्ण का अवतार समझता है ? अपना शरीर तो देख, जीवित नरकंकाल लगता है । मैं तो तुमको राजपुरोहित समझकर अब तक क्षमा करता रहा था, पर अब मैं तुझे सबक सिखाउफँगा । दिखला अपने विराट् स्वरूप को । मैं भी तो देखूँ, तू कृष्ण का कौन-सा रूप है ? अब जमा तू अपनी पाँव अंगद की तरह, मैं उखाड़ता हूँ ।
(सभी सभासद अपना सिर झुका लेते हैं ।)
धननन्द : (सैनिकों से) सैनिको, इस दुष्ट ब्राह्मण को उठाकर मगध की सीमा के पार फेंक दो । ऐसे चाण्डाल को मगध में रहने का कोई अधिकार नहीं है । कृतध्न कहीं का ! हमारा ही अन्न खाता है और हमीं को उपदेश देता है ! ले जाओ इसे । (कुछ सैनिक राजपुरोहित को दोनों हाथ और पाँव
पकड़कर उठा लेते हैं । पुरोहित क्रोधित होकर हाथ-पाँव मारते हुए कहता है।)
राजपुरोहित : अरे जारज धननन्द, तुम, सचमुच, नीच और अयोग्य हो। तुम मदान्ध हो, अधर्मी हो, विवेकहीन हो और चाटुकारिता-पसन्द हो । तुम्हारी मति मारी गयी है । तुझमें राजा का नीर-क्षीर विवेक नहीं रहा । तुम क्रूर आततायी बन गये हो । अब तो तुम्हारा विनाश अवश्यम्भावी है । तुम अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकते । तुम नंदवंश का पतन करके ही मानोगे । शीघ्र ही तुम्हारा सर्वनाश हो जायेगा ।

धननन्द : (सैनिकों को संकेत करते हुए) ले जाओ इस अशिष्ट ब्राह्मण को । इसे शीघ्र मेरे सामने से दूर करो । (सैनिक पुरोहित को उठाकर नेपथ्य में ले जाते हैं ।)
धननन्द : (सेनापति से)  सेनापति, कात्यायन को भी कारागृह में डाल दो । और हाँ; इसकी एक-एक गतिविधियों पर ध्यान रखो । पल-पल की सूचना एकत्र करो और इससे हमको भी अवगत कराते रहो । ले जाओ इसे । 

(सेनापति सैनिकों को संकेत करता है । सैनिक कात्यायन को जंजीरों से जकड़कर ले जाते हैं । जाते-जाते मुड़कर कात्यायन चेतावनी देता है ।)
कात्यायन : महाराज ! राजा प्रजा के पितातुल्य होता है । प्रजा का सुख-दुःख, राजा का सुख-दुःख होना चाहिये । प्रजा पर ही राजा का भविष्य निर्भर करता है । इसलिये राजा को प्रजाहितरक्षक तथा न्यायवादी होना चाहिये, अन्यथा प्रजा के धैर्य की सीमा टूट सकती है और यदि प्रजा विद्रोह कर दे, तो आपका सिंहासन क्षण-मात्रा में छीन सकता है। आपका कृत्य इसी ओर अग्रसर है, महाराज ! मेरी मानिये, अभी भी समय है, सँभल जाइये, अन्यथा मगध में नन्दवंश के महान पुर्वजों को पानी देनेवाला भी कोई नहीं रह जायेगा ।
(पर्दा गिरता है।)

Friday, 8 June 2012

स्वमत

साहित्य समाज का दर्पण है । इसके माध्यम से सहजता से तत्कालीन समाज के विविध आयामों के दर्शन होते हैं । साहित्य की कोई भी विधा अपने समकालीन परिवेश, राजनीति, धर्मव्यवस्था और पर्यावरण के सम्बन्ध में सम्पूर्ण न भी सही, तो एक झलक तो दिखलाती ही है, जिसके आधार पर उस युग का एक खाका खींचा जा सकता है । प्राचीन भारतीय मनीषियों ने सर्वजन हिताय विपुल साहित्य का सृजन किया है । उसको सन्दर्भ मानकर ही सहस्रों वर्ष पुरातन-सनातन भारतीय संस्कृति का जीवन्त चित्रण सम्भव है । पुरुषार्थ चतुष्टय के आधार पर समाजोपयोगी घटनाओं को एक माला में गूँथकर गंगोत्री से अनन्त सागर के लिये निकला यह अविरल प्रवाह सभ्यता के प्रारम्भ से ही सतत् बहता चला आ रहा है । आज के तथाकथित विकसित देश जब सभ्यता का क ख ग भी नहीं जानते थे, उस समय भारतीय ऋत्विजों ने सप्तसैन्धव के विस्तृत भूक्षेत्र में वेदों की पावन ऋचाओं का सस्वर गान कर पूरी सृष्टि को सुमंगल बनाने का पुनीत कार्य किया था। उन उद्भट मनीषियों के श्रेष्ठ साहित्य आज की सभी समस्याओं का सम्यक् समाधन प्रस्तुत करने में सक्षम हैं ।
 यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम लगभग एक हजार वर्षों तक विभिन्न विदेशी शासनों के अधीन रहे । इस पराधीनता-काल में भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति और सामाजिक संस्थाओं को निर्ममता से कुचला गया । भारतीयों में हीन भावनायें भरी गयीं तथा स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये भारतीय इतिहास, महापुरुषों और परम्पराओं को पर्याप्त विकृत कर अपने पक्ष में करने का घृणित कुकृत्य किया गया । इसके लिये कई विदेशी तथाकथित विद्वानों को वेतन देकर काम पर लगाया गया । बाद के कालखण्ड में जन्म से भारतीय, पर चिन्तन से विलायती इतिहासकारों एवं वामपन्थी बुद्धिजीवियों ने भी यही कार्य किया । ऊलजलूल तथा मनगढ़न्त सन्दर्भों को तैयार कर भारतीय इतिहास का एक ऐसा ढाँचा खड़ा किया गया, जो देखने में तो भारतीय लगे, पर स्वार्थ परराष्ट्रिकों का ही पूर्ण करे ।
 स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व ही कई श्रेष्ठ भारतीय विद्वानों ने इस विकृत मानसिकता को समझ लिया था और इसे निर्मूल सिद्ध करने के लिये, कम मात्रा में ही सही, कार्य भी किया था । स्वातन्त्रयोत्तर काल में इस क्षेत्र में व्यापक कार्य हुआ है । आज वे प्राचीन धारणायें व मान्यतायें खण्डित हो गयी हैं, जिन्हें विदेशी इतिहासकारों व साहित्यकारों ने जबरदस्ती स्थापित किया था । आर्यों का भारत में बाहर से आना, सरस्वती नदी का एक किंवदन्ती होना, भारत का कभी भी एक राष्ट्र के रूप में न होना आदि ऐसी बहुत सी स्थापनायें थीं, जो आज के शोध-कार्यों से तार-तार हो गयी हैं ।
 सिकन्दर द्वारा भारत-विजय भी एक ऐसी ही मिथ्या मान्यता है। वर्तमान उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि सिकन्दर पंचनद-नरेश पर्वतेश्वर (पोरस) से पराजित हो चुका था । परंतु, पर्वतेश्वर की भारत-सम्राट् बनने की महत्त्वाकांक्षा को जगाकर सिकन्दर कुछ भारतीयों की मदद से ही एक सन्धि करने में सफल हो गया तथा स्वयं ही विश्वविजेता बनने का दिवास्वप्न देखने लगा । इस गुप्तसन्धि को तत्कालीन सभी भारतीय शासक समझने लगे थे । सभी शासकों को एकजुट करने में चन्द्रगुप्त की बहुत बड़ी भूमिका थी । इसी का परिणाम था कि सिकन्दर की सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था । फलतः, सिकन्दर को पाँव सिर पर रख वापस यूनान लौटने को विवश होना पड़ा था, हालाँकि वह यूनान वापस जा नहीं सका और मकरान की मरुभूमि में ही दफन हो गया ।
 चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में भी कुछ ऐसी ही भ्रान्तियाँ हैं । वह एक गड़रिये का पुत्र था, शूद्र जाति का था, अनपढ़ और गँवार था, जिसे चाणक्य ने भारत-सम्राट् बनाया आदि । आज ये सभी मान्यतायें भी खण्ड-खण्ड हो गयी हैं । वास्तव में, चन्द्रगुप्त पिप्पली-कानन के मोरिय वंश का एक क्षत्रिय वीर योद्धा था ।
उसके पिताजी धननन्द की सेना में एक योग्य सेनापति थे । वह एक श्रेष्ठ तलवारबाज तथा शूलबाज था। वह एक श्रेष्ठ चिन्तक व कुशल शासक भी था । समय की माँग को समझते हुए अपने पराक्रम से सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोनेवाला चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास का एक उद्दीप्त तारा है, जिसका प्रकाश युगों-युगों तक भारतीय वंशजों को अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने को प्रेरित करता रहेगा । इस तारे को सतत् चमकीला बनाने में महात्मा चाणक्य के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । चाणक्य के उचित मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त की योग्यता और भी प्रभावी हो गयी तथा मार्ग की जटिलताओं को दूर कर भारतवर्ष में एक अविस्मरणीय राष्ट्रीयता का जन-जागरण सम्भव हुआ ।
 सचमुच, भारतवर्ष वीरों की जन्मभूमि है । यहाँ ऐसे अगणित महापुरुष हुए हैं, जिनका एक-एक प्रसंग मानव जीवन में आमूल परिवर्तन लाने के लिये पर्याप्त है । इस भूमि की श्रेष्ठता इसी से सिद्ध् हो जाती है कि स्वयं श्रीभगवान् ने अपनी लीलाओं के लिये इसी भूमि को चूना तथा बार-बार विविध रूपों में अवतरित हुए । परंतु, वर्तमान तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था तथा भारतीय शिक्षा-प्रणाली की विसन्गतियों एवं साहित्यकारों-इतिहासकारों के विभिन्न वादों में बँध जाने के कारण ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की प्रेरक जीवनियाँ आज की युवा पीढ़ी के समक्ष सम्यक् रूप में नहीं पहुँच पा रही हैं, जिसके कारण उनमें भारतीय इतिहास एवं ऐतिहासिक आदर्शजनों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है । वे अपने अतीत के प्रति हीनताबोध से ग्रसित हो रहे हैं तथा आँखें मूँदकर पश्चिमी भौतिकवादी चिन्तन-धारा की गोद में छलाँगें लगाने लगे हैं । यह भारत के सर्वांगपूर्ण विकास के मार्ग में एक सशक्त अवरोध  बन सकता है ।
 मैं इतिहासकार नहीं हूँ और न ही मेरा उद्देश्य इतिहास लिखना ही है । मेरा प्रयास सिर्फ इतना-सा है कि मैं साहित्य के माध्यम से नवीन ऐतिहासिक शोध-कार्यों को समावेशित कर महत्त्वपूर्ण भारतीय प्रेरक व्यक्तित्वों को युवा पीढ़ी तक पहुचाऊं। अपने इस कार्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान कर आम पाठकों तक पहुँचाने के लिये मुझे कई श्रेष्ठ विद्वानों एवं इतिहासकारों की रचनाओं की सहायता लेनी पड़ी है। प्रस्तुत नाटक की आधारभूमि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा रचित चन्द्रगुप्त की संक्षिप्त जीवनी है । उपलब्ध् अधुनातन शोध-पत्रों एवं पुस्तकों के आधार पर मैंने इसे आवश्यकतानुसार परिवर्धित कर इसमें नाटकीयता एवं रंगमंचीयता का समावेश किया है ।
 साहित्य के विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है, "मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता, परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न कर सके, जो उसे परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।"
 आचार्यश्री की कसौटी पर मैं कितना खरा उतरा हूँ, इसका निर्णय तो आप ही करेंगे, परन्तु यदि प्रस्तुत नाटक भारतीय युवापीढ़ी में भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रति एक सकारात्मक चिन्तनधारा प्रवाहित करने तथा सामान्य जन में अपने अतीत के प्रति गर्व की अभिव्यक्ति में शतांश भी सहयोगी हो जाय, तो मैं स्वयं को अपने उद्देश्य में सफल मानूँगा ।
      - दिवाकर राय